बीलवा फाटक के पास चाैपहिया गाड़ियों में बस गईं घुमंतुओं की बस्तियां, लॉकडाउन में इनके पास केवल जड़ी-बूटियां बचीं, जिनसे पेट नहीं भरता

जयपुर में जगतपुरा से महल रोड पर थोड़ा आगे चलें तो बीलवा का रेलवे फाटक आता है। यहां धरती के छोटे से टुकड़े पर एक नई दुनिया बस गई है। यह झुग्गी-झोपड़ी वाली बस्ती नहीं है। टेंपो-ट्रैवलर जैसी गाड़ियां इनका आशियाना हैं। इन गाड़ियों में ही ये सोते हैं, उठते-बैठते हैं और खाते-पीते हैं। ये फिल्मों जैसी कोई वातानुकूलित वैनिटी वैन नहीं हैं, बल्कि इन गाड़ियों की सीटें हटाकर नीचे बिस्तर बिछा लिए जाते हैं। घर और उठने-बैठने के नाम पर इनके पास कुछ है तो यह सीटें हटी हुई  गाड़ियों के नीचे के फर्श, जिसे ‘पहियों पर गरीबखाना’ कह सकते हैं। कुछ टेंट भी इन्होंने लगा लिए हैं।
ये घुमंतू लोग हैं, जिन्हें ‘गौंड चित्तौड़िया’ के नाम से जाना जाता है। इनके एक मुखिया पप्पू सिंह कहते हैं- ‘हम महाराणा प्रताप के वंशज हैं, गाड़िया लोहारों की तरह।’
गाड़िया लोहारों की जिंदगी बैल गाड़ियों पर चलती है और इनकी दुनिया चार पहियों वाली गाड़ियों पर आ गई है।
लॉकडाउन नहीं था तो ये शहर में जाकर जड़ी-बूटियां बेचते थे। शाम को घर नहीं, ये गाड़ियां इनका इंतजार करती मिलती थीं। छोटी-बड़ी करीब एक दर्जन गाड़ियां इनके पास हैं। छोटी गाड़ियों से ये शहर के दूरदराज इलाकों में फुटपाथ पर दुकान बिछाने के लिए जड़ी बूटियां और दूसरा  सामान लेकर जाते थे और बड़ी गाड़ियां खाने-पीने, सोने के काम आती हैं। लॉकडाउन में अब इनका रोज कुआं खोदने का धंधा चौपट हो चुका है और जमा पूंजी नहीं होने के कारण ये रोटी का इन्तज़ाम नहीं कर पा रहे हैं। पास के राधा स्वामी सत्संग वाले इन्हें खिचड़ी दे देते हैं, जिसे खाकर ये गुजारा कर रहे हैं।
जब धंधा चलता था तो शहर में जाकर यह अपनी जड़ी-बूटियों की दुकान लगाते थे। चारदीवारी इलाके में पुलिस इन्हें भगा देती थी, इसलिए इन्होंने अपने नए ठिकाने चुन लिए थे। दादी का फाटक, सांगानेर, ट्रांसपोर्ट नगर, विद्याधर नगर, कालवाड़ रोड आदि स्थानों पर इनकी फुटपाथी दुकानें चलती थीं। पेट में गैस बनना, गठिया, जोड़ों का दर्द, बवासीर आदि की जड़ी बूटियां ये बेचते थे। लॉकडाउन में वहां अब ये जा नहीं पा रहे। पप्पू सिंह कहते हैं- रोज 200 से 400 रु. की कमाई हो जाती थी, जिससे रोज की रोटी का इंतज़ाम हो जाता था। अब वह भी नहीं हो पा रहा है और खिचड़ी खा कर काम चला रहे हैं। कल कोई आए थे तो आटा, चावल दे गए। कुछ  रोज इससे काम चल जाएगा। 
दरअसल, जब इनके खाने की किल्लत की सूचना साहित्यिक संस्था कलमकार मंच के संयोजक निशांत मिश्रा को मिली तो वे अपनी टीम के साथ वहां पहुंच गए और 50 किलो आटा 10 किलो चावल, दो तीन तरह की दालों, नमक,  हल्दी, मिर्च, धनिया आदि  के पैकेट इनके पास पहुंचा दिए। अब ईंटों से चूल्हे बनाकर ये मिट्टी की हांडी पर अपना खाना पका रहे हैं। 


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